The progressive Path never Ends
How the experience of 'I and Time' is one, Which gives me only a deep Death - my experience that takes me beyond Time.
If we go in search of time, we will never find time, just like when we go in search of ourselves, we will never be able to find ourselves.
What should be done then?
What should happen then?
The state of sleep is known by our waking up, in the same way the time is known by 'across the time'. In the same way, the self is known only after crossing itself.
It is our idea that time is past, future is – time is a practical tool. When our thoughts or feelings come into us, then we feel that we are walking; We feel that we have started progressing; If we meditate today then we will become enlightened. Nothing like this should ever happen. If you look carefully you will know that we are only the present, and the present is now and here. If we want to find ourselves, we have to stay in the present. If we cannot stay, then we are material, matter is always going to change. It is this change that makes us feel pain.
When we question time, What is it?
If I want to know what my true form is, do I need time?
To know this you don't need time, you just need to let go of time.
The real you is that which is ever-present and unchanging.
One who experiences, yet cannot be experienced.
We say that there is no time like the present.
But experience says that there is no time, only presence.
We are not the one who comes and goes. We are the one who knows the coming and going of all things. We are the one in whom everything is born and with whom everything is made. And who knows this?
One Who is beyond Time.
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प्रगतिशील पथ कभी समाप्त नहीं होता
'मैं और वक़्त' का अनुभव कैसे एक ही है, जो मेरे को सिर्फ गहरी मौत ही देता है -
मेरा अनुभव जो वक़्त के पार ले जाता है।
अगर हम वक़्त को ढूंढ़ने जायेगे तो हम को वक़्त कभी नहीं मिलेगा,ठीक वैसे ही जब हम खुद को ढूंढ़ने जाएंगे तो हम कभी भी खुद को ढूंढ नहीं पाएंगे।
फिर क्या करना चाहिए?
फिर क्या होना चाहिए?
सोने की स्थिति का पता हमारे जागने से मिलता है, ठीक वैसे ही वक़्त का पता 'वक़्त के पार' हो जाने से लगता है। ठीक वैसे ही खुद का पता, खुद से पार हो जाने के बाद ही लगता है।
यह हमारा एक विचार है कि वक़्त है अतीत है, भविष्य है- वक़्त एक व्यावहारिक उपकरण है। जब हमारी सोच या भावना हमारे में आती है तो हम को लगता है कि हम चल रहें हैं ;हम को लगता है कि हमारी उन्नति होने लगी है ;आज हम ध्यान करतें हैं तो हम प्रबुद्ध हो जायेगें। ऐसा कुछ भी कभी होना नहीं। सावधानी से देखेंगे तो पता चलेगा कि हम सिर्फ वर्तमान हैं, और वर्तमान अभी और यहीं हैं। अगर हम ने खुद को पाना है तो हम को वर्तमान में ठहरना पड़ेगा। अगर हम ठहर नहीं सकते तो हम पदार्थी हैं, पदार्थ ने सदा परिवर्तन होना ही है।यह परिवर्तन होना ही हमारे को दर्द महसूस करवाता है।
जब हम वक़्त के ऊपर सवाल करतें हैं तो वो क्या है?
अगर मैंने यह जानना है कि मेरा असली रूप क्या है तो क्या मेरे को वक़्त चाहिए ?
यह जान्ने के लिए वक़्त की ज़रुरत नहीं सिर्फ वक़्त को छोड़ देने की ज़रुरत है।
वास्तविक तुम वही हो जो सदा-वर्तमान और अपरिवर्तनीय है।
जो अनुभव करता है, फिर भी अनुभव नहीं किया जा सकता है।
हम कहते हैं कि वर्तमान जैसा वक़्त नहीं है।
लेकिन अनुभव कहता है कि वक़्त नहीं है, केवल उपस्थिति है।
हम वह नहीं हैं जो आता और जाता है। हम वह हैं जो सभी चीजों के आने और जाने को जानते हैं। हम वह हैं जिसमें सब कुछ उत्पन्न होता है और जिसके साथ सब कुछ बनता है। और यह कौन जानता है?
एक वो जो वक़्त के पार है।