Saintly Walk
When there was sanity in my walk:
My moment was a sanyasi, when I had put my shoe in someone's bare feet and when I walked from there, I had the gait of a monk. Then there was only one message in the sound of my move that 'to be in service is the highest aim'.
Have I ever thought so?
No !
So how did this incident happen?
Then I came to know that a person is not a sage, thinking is a sage, which makes a person's movement a sage.
The remembrance of the saints filled me with the same thoughts as the saints and I do not even know when the service itself became a service.
Everything is nature, which always gives and takes to all.
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The more we detach from attachment, the more easily we can give up time and money.
What is a donation?
Which is the real charity?
charity: to give something to someone
Till today we have never given anything to anyone
To give money is to give charity, that which belongs to the world has gone into the world, it is a give and take.
Charity is giving up one's own 'ego'. When we walk without pride, then our very existence becomes a prayer for the world – this prayer is the greatest charity of all.
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I did not even know when the walk of my asceticism accepted the world as family.
One day this question came to me that what should I do, which I can do very beautifully, then it was - 'feeling of belonging'. In which direction should I give this feeling of mine? Now I had this question. Because I could carry this feeling in every part of my life. And every part needs it, so what should I do?
The pain that I have seen the most, the deepest I have seen - that is 'loneliness'
This feeling of 'loneliness' had sown the seed of 'oneness' in me.
A person living in a relationship is also lonely, a person passing through the crowd also feels lonely, why?
This 'why' had become my journey.
Why do we feel lonely?
What is this loneliness?
Is the root of this loneliness the mind or the intellect?
How to overcome loneliness?
What is the reason behind this loneliness?
How and why should we accept loneliness?
Loneliness belongs to the mind, through the mind we know that we are alone. There is only one thought. There is a difference in the thinking of every person; The way of thinking, the way of looking at everything, event, direction, condition, and situation, the way to solve the problem, the degree of feeling of love, trust, reverence, everyone has different. She does not meet anyone, even if someone meets our thinking, we still express our thinking in different ways. The difference in our thinking gives us such a feeling that 'no one understands me', the depth of this complaint leads us to loneliness.
And the treatment of this is very easy.
Whenever any person understands the understanding of his own mind, then at the same time he understands that in the difference of all of us there is a common, a lesson; And this difference is the mysterious art of seeing the same thing as different.
With this experience our complaining ends, and acceptance begins to grow.
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मेरा वो पल सन्यासी था, जब मैंने खुद का जूता किसी के नंगे पैरों में पा दिया था और जब मैं वहां से चली थी, तो मेरी चाल में एक साधु की चाल थी। तब मेरी चाल की आहट में एक ही संदेशा था कि 'सेवा में रहना ही सर्वोच्च उद्देश्य है'
क्या मैंने ऐसा कभी सोचा था?
नहीं !
तो यह घटना कैसे घटित हो गई?
तब मैंने जाना था कि व्यक्ति साधु नहीं होता, सोच साधु होती है, जो व्यक्ति की चाल को साधु बना देती है।
संतों की याद ने संतों जैसी सोच से ही मेरे को भर दिया और यह सोचें खुद ही कब सेवा बन गई ,पता ही न चला।
हर चीज़ कुदरत है, जो सदा ही सब को देती है और लेती है।
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आप सेवा के लिए कब तैयार होंगे?
हम जितने अधिक लगाव से अलग होते हैं, उतनी ही आसानी से हम वक़्त और पैसे को छोड़ सकते हैं।
दान होता क्या है?
असली दान कौन सा है ?
दान : किसी को कुछ देना
आज तक हम ने कभी किसी को कुछ दिया ही नहीं
पैसा देना, दान देना है, जो चीज़ संसार की है, संसार में ही चली गई, यह तो एक देना और लेना है
दान है खुद की 'ego ' को छोड़ देना। जब हम बिन-घमंड के चलते हैं तो हमारा वजूद ही संसार के लिए दुआ बन जाता है- यह दुआ ही सब से बड़ा दान है।
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मेरी सन्यासीपन की चाल ने कब दुनिआ को परिवार मान लिया, मेरे को पता ही न चला।
एक दिन मेरे में यही सवाल आया कि मेरे को ऐसा कौन सा काम करना चाहिए, जिस को मैं बहुत सुंदरता से कर सकती हूँ, तो वो था- 'अपनेपन का एहसास'. मेरे इस एहसास को मैं कौन सी दिशा दूँ? अब मेरे में यह सवाल था। क्योंकि मैं इस एहसास को जीवन के हर हिस्से में ले के जा सकती थी।और हर हिस्से को ही इस की ज़रुरत है तो क्या करना चाहिए मुझ को ?
वो दर्द, जो मैंने सब से ज़्यादा देखा है, जिस को मैंने सब से गहरा देखा है - वो है 'अकेलापन'
इस 'अकेलेपन' के एहसास ने ही मेरे में 'अपनेपन' का बीज बोया था।
रिश्तों में रहता हुआ इंसान भी अकेला है भीड़ में से गुज़रता हुआ व्यक्ति भी खुद को अकेला महसूस करता है, क्यों?
यह 'क्यों' मेरी यात्रा बनी थी।
क्यों हम अकेलापन महसूस करतें हैं?
यह अकेलापन क्या होता है?
इस अकेलेपन की जड़ मन है या बुद्धि ?
अकेलेपन को कैसे दूर करें?
इस अकेलेपन के पीछे कारण क्या है?
अकेलेपन को हम कैसे और क्यों स्वीकार करे?
अकेलापन मन का होता है, मन के ज़रिये हम जानतें हैं कि हम अकेले हैं। अकेली सोच होती है। हर व्यक्ति की सोच में एक भिन्नता होती है; सोचने का तरीक़ा, हर चीज़, घटना, दिशा, दशा, और हालात को देखने का तरीक़ा, तकलीफ को हल करने का तरीक़ा, प्यार, भरोसा, श्रद्धा को महसूस करने की डिग्री ,सब की अलग अलग होती है। वो किसी से मिलती नहीं, अगर कोई हमारी सोच मिल भी जाती है, तो भी हम अपनी सोच को ब्यान अलग अलग तरीके से ही करतें हैं। हमारी सोच की भिन्न्नता ही हम को ऐसा एहसास देती है कि-' मेरे को कोई समझता नहीं', यह शिकायत की गहराई हम को अकेलेपन में ले जाती है।
और इस का इलाज़ बहुत ही आसान है।
जब भी कोई भी व्यक्ति खुद के मन की समझ को समझ लेता है तो साथ ही उस को यह समझ आ जाती है कि हम सब की भिन्नता में ही एक सांझ है, एक सबक है; और यह जो भिन्नता है, यह एक ही चीज़ को अलग अलग देखने की रहस्यमय कलाकारी है।
इस अनुभव के साथ हमारी शिकायत खत्म हो जाती है, और स्वीकारता बढ़ने लगती है