Is there any such dimension?
I am neither tired nor sleepy, but I feel myself awake from the deepest and also feel very deep fitness.
A sound is falling silently in my ears behind this huge spread. Even though she is silent, she is silently giving a message that 'See where you are sitting'
And I am sitting in a loss of life, from here I am looking at the embrace of life and death.
In front of me I am seeing both of them together. I am clearly seeing the death born in my life.
Then I see myself sitting in this deep silent dimension.
I am who I am, who is sitting in a distance far away, who I have been far away from my body. I question myself, why don't I leave this body?
I saw today for the first time that this is a different kind of dimension - in which my 'I' is living. Which is looking at both death and life. Who neither has attachment to death nor life. I remain the traveler of only such life, from which sees the blossoming life and the dying life.
Be it me or a flower.
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जीवन अनंतता का अनंत रूप है। इस अनंतता का सब से गहरा रहस्या यही है कि इस की यात्रा चाहे युग की है पर समझ पल में भी आ जाती है
क्या ऐसा आयाम भी कोई है ?
कल जब मैंने Costco स्टोर में गई तो मैंने खिले हुए फूलों के पेड़ों को देखा, तो सवाल पैदा हुआ तो मेरे को क्यों सब कुछ ऐसे प्रतीत होता है कि जीवन की स्पीड बहुत तेज़ है। पल पल में अनुभवीं की गती हो या मेरी हर रोज़ की सोच: हर पल बहुत तेज़ी से बदलता है। जिस्म की ओर तो ध्यान ही नहीं। देखती हूँ कि कैसे मेरा जीना भागता चला जा रहा है और मैं कहीं बेथ कर इस भागते जीवन की ओर देख रही हूँ।
मैंने जो न ही थकी हुई हूँ और ना ही सोई हुई हूँ, बलिक मैं बहुत गहरे में से खुद को जागा हुआ महसूस करती हूँ और बहुत गहरी तंदरुस्ती को भी महसूस करती हूँ।
इस विराट फैला की गती के पीछे एक आहट चुपचाप मेरे कानों में पड़ रही है। चाहे वो चुप है पर वो चुप चुपचाप एक संदेसा दे रही है कि 'देख तू कहाँ पर बैठी है '
और मैं जीवन की एक नुकर में बैठी हूँ, यहाँ से मैं जीवन और मौत का आलिंगन देख रही हूँ।
मेरे ही आगे मैं दोनों को एक साथ देख रही हूँ। पैदा होते जीवन में पैदा होती मौत को साफ़ साफ़ देख रही हूँ।
तब मैं खुद को जो इस गहरे चुप-आयाम में बैठी है, उस की तरफ देखती हूँ।
मैं जो मैं हूँ, जो बहुत दूर किसी नुकर में बैठी हूँ , जो मैं खुद के जिस्म से बहुत दूर निकल चुक्की हूँ। खुद को सवाल करती हूँ तो कि फिर इस जिस्म को छोड़ क्यों नहीं देती ?
मैंने देखा आज पहली बार कि यह तो एक अलग ही किस्म का आयाम है- जिस में मेरी 'मैं' जी रही है। जो मौत को और जीवन को दोनों को देख रही है। जिस को न ही मौत से लगाव है और ना ही जीवन से।मैं सिर्फ ऐसे जीवन की यात्री बनी हुई है, जिस में से खिलते जीवन को और मुरझाते जीवन को देखती है।
वो चाहे मैं हूँ या कोई फूल।