The nature of the quality of the world is negative, why?
Why is the world a house of sorrow
and how can we be happy in the world?
A soft answer to our original question,
which I got and my life became happy.
When life started from me, when I have gained the world from my being, then I will get happiness, peace, love etc. from me, never from anyone else. No matter how much relationship I have with someone and how deep, I will walk with my feet only.
- Until today, I did not have to be friends with myself, how will I ever be able to be friends of anyone else?
Even if I become, then I will never be able to achieve the success that my soul desires.
- I have not yet understood myself, how can I call someone guilty, how?
- Did I get my sense?
- When today I am not mine, how can I be angry with someone else, how?
- When I say 'I am', 'I am this', 'I am that', 'I have done this', 'I have done that', When I am making me, I am still not mine If made, then how will others become mine?
- Are all the other servants of my father?
- Are all others for me, how can I think?
- Have I ever done anything meaningfully to anyone else?
Our negative attitude is to eliminate the other, while we must erase only one thing. By erasing that, not only in life, but the whole universe begins to spin directly; That is our 'I am’, our ego.
We always do everything for others, good and bad too; If we do this for ourselves, then life will be full of art.
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संसार के गुणरूप की गुणवत्ता नकारात्मिक है , क्यों?
संसार दुःख का घर क्यों है
और कैसे हम संसार में खुश रह सकतें हैं?
हमारे इस मूल सवाल का कोमल सा जवाब,
जो मुझे मिला और मेरा जीना ख़ुशी बन गया।
जब ज़िंदगी की शुरूआत मेरे से हुई, जब संसार की प्राप्ति मेरे को मेरे होने से ही हुई है तो ख़ुशी, सुख, रब्ब आदि की प्राप्ति मेरे को मेरे से ही होगी, किसी दूसरे से कभी भी नहीं होगी। मेरा किसी के साथ कैसे भी रिश्ता हो और कितना भी गहरा हो, चलना मुझ को मेरे ही पाऊं से होगा।
- जब आज तक मेरे को मेरे से ही दोस्ती करनी नहीं आई, तो मैं कभी भी किसी और की दोस्त कैसे बन पाऊँगी ?
अगर मैं बन भी गई तो मैं वो सफलता कभी नहीं पा सकूंगी, जिस की चाहना मेरी रूह को है।
- क्या मैंने खुद को जान लिया, खुद को समझ लिया, क्योंकि मेरे को सदा शिकायत रहती है कि कोई भी मेरे को समझता नहीं , क्यों?
- क्या मेरे को मेरी समझ आ गई ?
- जब आज मैं ही मेरी नहीं बनी तो मैं कैसे किसी दूसरे पर नाराज़ हो सकती हूँ , कैसे ?
- जब मैं यह कहती हूँ कि 'मैं हूँ ' , 'मैं यह हूँ ', 'मैं वो हूँ ', 'मैंने यह किया', 'मैंने वो किया', जब मैं ही मैं को बना रही हूँ तो फिर भी मैं मेरी नहीं बनी, तो दूसरे मेरे कैसे बन जाएंगे ?
- क्या दूसरे सब मेरे बाप के नौकर हैं?
- क्या दूसरे सब मेरे लिए ही हैं, यह मैं कैसे सोच सकती हूं ?
- क्या मैंने कभी किसी दूसरे के लिए बिना मतलब से कुछ किया भी है ?
हमारी नकारत्मिक विरति दूसरे को मिटा देने को त्यार हो जाती है, जब कि हम को सिर्फ एक ही चीज़ को मिटाना चाहिए। जिस को मिटा देने से ज़िंदगी का ही नहीं , पूरे ब्रह्माण्ड का चकरा सीधा घूमना शुरू हो जाता है ; वो है, हमारा ' मैं हूं ‘,हमारा घमंड .
हम सदा सब कुछ दूसरों के लिए करतें हैं, अच्छा भी और बूरा भी ; अगर यह हम खुद के लिए कर लें, तो जीवन कला से भरपूर हो जाएगा.